डेविस ने 1889 में भौगोलिक चक्र की संकल्पना का प्रतिपादन किया ( डेविस का भौगोलिक चक्र सिद्धांत ) तथा बताया कि भौगोलिक चक्र समय कि वह अवधि है जिसके अंतर्गत उत्थित भूखंड अपरदन के प्रक्रम द्वारा प्रभावित होकर एक आकृतिविहीन समतल मैदान में बदल जाता है इस तरह डेविस ने स्थलरूपों के विकास में चक्रिय पद्धति का अवलोकन ऐतिहासिक परिवेश में किया उन्होंने बताया कि स्थल रूपों के निर्माण एवं विकास पर संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था का प्रभाव होता है इसी आधार पर डेविस ने यह प्रतिपादित किया कि स्थलरूप संरचना, प्रक्रम तथा समय का प्रतिफल होता है इस तीन कार्य को ( संरचना, प्रक्रम तथा अवस्था ) को डेविस के त्रिकूट के नाम से जाना जाता है डेविस का सामान्य सिद्धांत यह है कि स्थलरूपों में समय के संदर्भ में क्रमिक परिवर्तन होता है इनके सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य स्थल रूपों का जननीक एवं क्रमबद्ध वर्णन करना था.
डेविस के अनुसार उत्थान तथा अपरदन – डेविस का अपरदन स्थलमंडल में उत्थान के साथ प्रारंभ होता है उत्थान की अवधि छोटी होती है तथा जब तक उत्थान चलता रहता है अपरदन प्रारंभ नहीं होता. परंतु जैसे ही उत्थान पूर्ण हो जाता है अपरदन प्रारंभ हो जाता है तथा वह चक्र के अंत तक चलता रहता है इस तरह उत्थान तथा अपरदन कभी साथ साथ नहीं चलते है
डेविस ने अपने भौगोलिक चक्र मॉडल ( डेविस का अपरदन चक्र सिद्धांत ) की आरेख द्वारा व्याख्या की है समांग संरचना वाले धरातलीय भाग में उत्थान के साथ चक्र प्रारंभ होता है यह धरातलीय उत्थान लघु अवधि में अत्यंत त्वरित गति से होता है उत्थान के इस अवधि को चक्रिय अवधि के अंतर्गत सम्मिलित नहीं किया जाता है इसे अपरदन चक्र की तैयारी की अवस्था या प्रारंभिक अवस्था कहते हैंऊपर Image में UC धरातलीय भाग की सागर तल से निरपेक्ष ऊंचाई को प्रदर्शित करता है यह ऊपर ही वक्र( UC ) पहाड़ियों के शिखर या जल विभाजकों के शिखर को भी प्रदर्शित करता है जबकि LC ( निचला वक्र ) सागर तल से न्यूनतम उच्चावच या नदियों की घाटियों की तली को इंगित करता है से क्षैतिज रेखा ( क – ग ) समय की परिचायिका है जबकि लंबवत रेखा ( क – ख ) ऊंचाई ( सागर तल ) को दिखाता है अ – स सागर तल से अधिकतम निरपेक्ष उच्चावच का प्रदर्शित करती है. जबकि ब – स रेखा प्रारंभिक सापेक्षिक उच्चावच को दिखाती है ज्ञातव्य है कि उच्चस्थ तथा निम्नस्थ भागों के लंबवत अंतर को सापेक्षिक उच्चावच या मात्र उच्चावच कहते हैं अ – द – ल रेखा अपरदन के आधार तल ( जो सागर तल के बराबर होते हैं ) को प्रदर्शित करती है ज्ञातव्य है कि कोई भी नदी आधार तल ( सागर तल ) से नीचे अपनी घाटी को गहरा नहीं कर सकती है य – र रेखा अधिकतम सापेक्षिक उच्चावच को इगित करती है स के बाद स्थलखंड का उत्थान समाप्त हो जाता है परिणाम स्वरूप प्रारंभिक प्रावस्था का उत्थान का समापन हो जाता है अब अपरदन प्रारंभ होता है तथा संपूर्ण चक्र तीन अवस्थाओं ( तरुण प्रौढ़ तथा जीर्ण ) से गुजरता है.
तरुणावस्था :-
स्थलखंड के उत्थान की समाप्ति के बाद अपरदन प्रारंभ होता है पहाड़ियों के शिखर तथा जल विभाजकों के शिखरीय भाग अपरदन से प्रभावित नहीं होते क्योंकि प्रारंभ में सरिताये छोटी तथा दूर-दूर होती है इन लघु सरिताओं में शीर्ष वर्ती अपरदन होता है जिस कारण उनकी लंबाई निरंतर बढ़ती जाती है इस क्रिया को सरिता दीर्घीकरण कहते हैं तीव्र ढाल एवं तीव्र जलमार्ग ढाल के कारण नदियों का प्रवाह वेग तीव्र होता है परिणाम स्वरूप अधिकतम परिवहन क्षमता के कारण नदियों बड़े-बड़े शीला खंडों के माध्यम से जलगर्तन की प्रक्रिया द्वारा अपनी घाटीयों को लंबवत अपरदन द्वारा गहरा करती है इस क्रिया को घाटी गर्तन कहते हैं इस तरह नदियों की घाटियां अत्यंत संकरी तथा गहरी हो जाती है इनके ढाल खड़े तथा उत्तल होते हैं घाटी गर्तन के कारण निचला वक्र निरंतर तेजी से घटता जाता है अर्थात घाटियों कि तली गहरी होती जाती है परंतु ऊपरी वक्र अर्थात जलविभाजको तथा पहाड़ियों के शिखर तक लगभग स्थिर रहते हैं क्योंकि इनका अपरदन नहीं होता इस तरह सापेक्षिक उच्चावच्च के निरंतर वृद्धि होती जाती है तथा तरुनावस्था के अंत में अधिकतम उच्चावच विकसित होता है.
प्रौढ़ावस्था :-
प्रौढ़ावस्था के प्रारंभ होते ही पार्श्विक अपरदन प्रारंभ हो जाता है अर्थात घाटियों की चौड़ाई बढ़ने लगती है इस क्रिया को घाटी चौड़ा होना कहते हैं अधिकांश सरितायें अपरदन के आधार तल के अनुरूप प्रमाणित हो जाती है घाटी की गहरा होना निहायत कम हो जाता है पहाड़ियों तथा जल विभाजकों के शिखरों का भी अपरदन प्रारंभ हो जाता है परिणाम स्वरूप ऊपरी वक्र में गिरावट आने लगती है अर्थात निरपेक्ष उच्चावच कम होने लगता है इस तरह निरपेक्ष एवं सापेक्ष उच्चावच दोनों में ह्रास होने लगता है पार्श्विक अपरदन के कारण तरुनावस्था की ‘V’ आकार की घाटियों का चौड़ी घाटियों में परिवर्तन हो जाती है ये घाटिया कम गहरी तथा समाढाल या सरल रेखीय ढाल वाली होती है ज्ञातव्य है कि तरुण अवस्था में तीव्र घाटी गर्तन के कारण जलमार्ग ढाल कम होता जाता है अतः प्रौढ़ावस्था में मंद जल मार्ग ढाल के कारण नदियों का प्रवाह वेग कम हो जाने से उनकी परिवहन क्षमता भी कम हो जाती है जिसके कारण घाटी गर्तन मंद पड़ जाता है परंतु पार्श्विक अपरदन के कारण घाटियों का चौड़ा होना अधिक सक्रिय होता है.
जीर्णावस्था :-
जैसे ही निम्नवर्ती या लंबवत आपदरन का स्थगन हो जाता है जीर्नावस्था प्रारंभ हो जाती है परंतु पार्श्विक अपरदन तथा घाटि के चौड़ा होने का कार्य भी जारी रहता है जल विभाजको के आकार में अध: क्षय से तथा पृष्टवर्ती अपरदन के कारण ह्रास होने लगता है परिणाम स्वरूप ऊपर ही वक्र में तेजी से गिरावट आने लगती है अर्थात निरपेक्ष उच्चावच के तेजी से घटने लगता है इस अवस्था में जलमार्ग ढाल के निहायत कम हो जाने के कारण गतिज ऊर्जा न्यूनतम हो जाती है जिस कारण लंबवत अपरदन या घाटी गर्तन नहीं हो पाता है निरपेक्ष तथा सापेक्ष उच्चावच दोनों न्यूनतम होते हैं घाटियां उत्तरी तथा अत्याधिक चौड़ी होती जाती है जिसका पार्श्व ढाल अवतल होता है
इस अवस्था में समस्त स्थलखंड निम्न उच्चावच्च वाला होता है जिस पर नदियां मियांडर बनाती हुई. विस्तृत बाढ़ मैदानों का निर्माण करती है इस लगभग समतल मैदान को डेविस ने पेनिप्लेन का नाम दिया है इसकी सतह उत्तल – अवतल ढाल वाली कम ऊंचाई की बिखरी अवशिष्ट पहाड़ियां पायी जाती है डेविस ने मोनाडनाक की संज्ञा दी है मोनाडनाक का नामकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूहैम्पशायर की मोनाडनाक पहाड़ी के नाम पर किया गया है.
डेविस का अपरदन चक्र सिद्धांत
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